Wednesday, July 24, 2024
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बिहार के होनहार पत्रकार रविश कुमार को रेमन मेग्सेसे पुरस्कार, उनके भाषण के अंश एवं जीवन परिचय

5 दिसंबर 1974 को बिहार के मोतिहारी (पूर्वी चम्पारण) में जन्मे रविश कुमार को वर्ष 2019 का रेमन मेग्सेसे पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। उन्हें यह पुरस्कार आज 9 सितम्बर को भारतीय समय अनुसार दिन के दो बजे फिलीपीन्स की राजधानी मनिला में प्रदान की जाएगी। फ़िलीपीन्स के भूतपूर्व राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे की याद में दिया जाने वाले इस पुरस्कार को एशिया का नोबेल प्राइज का दर्ज़ा प्राप्त है। 1957 में “रॉकफेलर ब्रदर्स फण्ड” (NewYork से संचालित) के ट्रस्टियों द्वारा स्थापित यह पुरस्कार 1958 से प्रतिवर्ष अपने क्षेत्र में बेहतरीन का करने वाले एशिया के व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है।

आखिर रविश कुमार ही क्यों

वर्तमान में, रविश कुमार के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य आरम्भ करने वाले अनेक पत्रकार कार्यरत है। लेकिन रेमन मेग्सेसे फाउंडेशन ने पुरे एशिया में आखिर क्यों रविश कुमार को ही इस पुरस्कार के लिए चुना, यह बहस की एक विषय है। बकौल रेमन मेग्सेसे फाउंडेशन, उन्हें यह पुरस्कार “बेआवाजों की आवाज बनने के लिए दिया गया है।” रैमॉन मैगसेसे अवार्ड फाउंडेशन ने इस संबंध में कहा, “रवीश कुमार का कार्यक्रम ‘प्राइम टाइम’ आम लोगों की वास्तविक, अनकही समस्याओं को उठाता है।” साथ ही प्रशस्ति पत्र में कहा गया, ‘अगर आप लोगों की अवाज बन गए हैं, तो आप पत्रकार हैं।’

गांधी के कर्मभूमि से निकला गांधीगिरी करता हुआ एक युवा

रविश कुमार ने प्रारंभिक शिक्षा अपने बिहार में ही पूरी की थी। उनकी उच्च शिक्षा दिल्ली में संपन्न हुई थी। रविश कुमार की जन्मभूमि मोतिहारी (पूर्वी चम्पारण), महात्मा गाँधी के 3 कठिया आंदोलन की वजह से विश्व इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। यही के मूल निवासी राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर गांधी जी ने किसानो को उनके हक़ दिलाने के लिए अंग्रेजो की अत्याचारी तीन कठिया नीति के खिलाफ सत्याग्रह का प्रस्ताव स्वीकार किया था।

इस नीति के अंतर्गत एक बीघा के 3 कत्थे (कुल भूमि के 15 %) में अनिवार्य रूप से नील की खेती करनी होती थी। इस फसल के बाद जमीन के उपजाऊपन में कमी आती थी एवं भूमि बंजर होते चली जाती थी। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के इस आंदोलन के बाद ही वे देश के जनमानस के बीच एक महत्वपूर्ण मुकाम हासिल कर पाए थे।

1996 में रविश कुमार ने NDTV में पत्र छांटने के रूप में काम आरम्भ किया। बाद में अपनी योग्यता के बदौलत वे दिनोदिन प्रगति करते गए एवं फ़िलहाल वे NDTV में मैनेजिंग एडिटर के रूप में कार्यरत है। जनसामान्य की समस्याओं की अच्छी समझ रखने वाले रविश कुमार आज भी खुद को एक एंकर के रूप में प्रचारित करते है। NDTV में उनकी शो PRIME TIME काफी लोकप्रिय है। रविश कुमार आमजन की समस्याओं और समाज के अंतिम पायदान पर खड़े जनता की आवाज उठाने के लिए जाने जाते है।

रेमन मैग्सैसे अवार्ड फाउंडेशन कार्यक्रम में रविश द्वारा दिए गए भाषण के अंश

रवीश कुमार ने अपने संबोधन में लोकतंत्र को बेहतर बनाने में सिटिज़न जर्नलिज़्म की ताकत विषय पर अपनी बात रखी। तो आइये हम जानते है उनके द्वारा दी गई भाषण के मुख्य अंश।

यह समय नागरिक होने के इम्तिहान का है। नागरिकता को फिर से समझने का है और उसके लिए लड़ने का है। एक व्यक्ति और एक समूह के तौर पर जो इस हमले से ख़ुद को बचा लेगा वही नागरिक भविष्य के बेहतर समाज और सरकार की नई बुनियाद रखेगा।

नागरिकता के लिए ज़रूरी है कि सूचनाओं की स्वतंत्रता और प्रामाणिकता हो। आज स्टेट का मीडिया और उसके बिज़नेस पर पूरा कंट्रोल हो चुका है। मीडिया पर कंट्रोल का मतलब है, आपकी नागरिकता का दायरा छोटा हो जाना। मीडिया अब सर्वेलान्स स्टेट का पार्ट है। वह अब फोर्थ स्टेट नहीं है, बल्कि फर्स्ट स्टेट है। मीडिया की भाषा में दो तरह के नागरिक हैं – एक, नेशनल और दूसरा, एन्टी-नेशनल। एन्टी नेशनल वह है, जो सवाल करता है, असहमति रखता है।

कश्मीर में कई दिनों के लिए सूचना तंत्र बंद कर दिया गया। सरकार के अधिकारी प्रेस का काम करने लगे हैं और प्रेस के लोग सरकार का काम करने लग गए। क्या आप बग़ैर कम्युनिकेशन और इन्फॉरमेशन के सिटिज़न की कल्पना कर सकते हैं? क्या होगा, जब मीडिया, जिसका काम सूचना जुटाना है, सूचना के तमाम नेटवर्क के बंद होने का समर्थन करने लगे, और वह उस सिटिज़न के खिलाफ हो जाए।

सिटिज़न जर्नलिज़्म पर बोले रविश कुमार

यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के सारे पड़ोसी प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में निचले पायदान पर हैं। पाकिस्तान में तो एक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी है, जो अपने न्यूज़ चैनलों को निर्देश देता है कि कश्मीर पर किस तरह से प्रोपेगंडा करना है। कैसे रिपोर्टिंग करनी है। इसे वैसे तो सरकारी भाषा में सलाह कहते हैं, मगर होता यह निर्देश ही है।

उन्हें बताया जाता है कि कैसे 15 अगस्त के दिन स्क्रीन को खाली रखना है, ताकि वे कश्मीर के समर्थन में काला दिवस मना सकें। जिसकी समस्या का पाकिस्तान भी एक बड़ा कारण है। जब ‘कश्मीर टाइम्स’ की अनुराधा भसीन भारत के सुप्रीम कोर्ट जाती हैं, तो उनके खिलाफ प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया कोर्ट चला जाता है। यह कहने कि कश्मीर घाटी में मीडिया पर लगे बैन का वह समर्थन करता है। मेरी राय में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और पाकिस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी का दफ्तर एक ही बिल्डिंग में होना चाहिए। गनीमत है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कश्मीर में मीडिया पर लगी रोक की निंदा की और प्रेस कांउंसिल ऑफ इंडिया की भी आलोचना की।

यह तो वही मीडिया है, जिसने अपने खर्चे में कटौती के लिए ‘सिटिज़न जर्नलिज़्म’ को गढ़ना शुरू किया था। इसके ज़रिये मीडिया ने अपने रिस्क को आउटसोर्स कर दिया। मेनस्ट्रीम मीडिया के भीतर सिटिज़न जर्नलिज़्म और मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर के सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों अलग चीज़ें हैं।

पर्सनल ओपिनियन लिखने की अनुमति नहीं

आज भी कई सारे न्यूज़रूम में पत्रकारों को पर्सनल ओपिनियन लिखने की अनुमति नहीं है। यह अलग बात है कि उसी दौरान बगदाद बर्निंग ब्लॉग के ज़रिये 24 साल की छात्रा रिवरबेंड (असल नाम सार्वजनिक नहीं किया गया) की इराक पर हुए हमले, युद्ध और तबाही की रोज की स्थिति ब्लॉग पोस्ट की शक्ल में आ रही थी और जिसे साल 2005 में ‘Baghdad Burning: Girl Blog from Iraq’ शीर्षक से किताब की शक्ल में पेश किया गया, तो दुनिया के प्रमुख मीडिया संस्थानों ने माना कि जो काम सोशल मीडिया के ज़रिये एक लड़की ने किया, वह हमारे पत्रकार भी नहीं कर पाते। यह सिटिजन ज़र्नलिज़्म है, जो मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर हुआ। आज कोई लड़की कश्मीर में ‘बगदाद बर्निंग’ की तरह ब्लॉग लिख दे, तो मेनस्ट्रीम मीडिया उसे एन्टी-नेशनल बताने लगेगा।

रविवार एक्सक्लूसिव: डॉ. राजीव कुमार सिंह, देश के नामचीन फ़िज़ियोथेरेपिस्ट

अगर आप इस मीडिया के ज़रिये किसी डेमोक्रेसी को समझने का प्रयास करेंगे, तो यह एक ऐसे लोकतंत्र की तस्वीर बनाता है, जहां सारी सूचनाओं का रंग एक है। यह रंग सत्ता के रंग से मेल खाता है। एक तरह से सवाल फ्रेम किए जा रहे हैं, ताकि सूचना के नाम पर धारणा फैलाई जा सके। जब मेनस्ट्रीम मीडिया में विपक्ष और असहमति गाली बन जाए, तब असली संकट नागरिक पर ही आता है। दुर्भाग्य से इस काम में न्यूज़ चैनलों की आवाज़ सबसे कर्कश और ऊंची है। एंकर अब बोलता नहीं है, चीखता है। मेनस्ट्रीम और TV मीडिया का ज़्यादतर हिस्सा गटर हो गया है।

रविश कुमार को गालियां आईं, धमकियां भी आईं

देशभर में मेरे नंबर को ट्रोल ने वायरल किया कि मुझे गाली दी जाए। गालियां आईं, धमकियां भी आईं। आ रही हैं, लेकिन उसी नंबर पर लोग भी आए। अपनी और इलाके की ख़बरों को लेकर। जब रूलिंग पार्टी ने मेरे शो का बहिष्कार किया था, तब मेरे सारे रास्ते बंद हो गए थे। उस समय यही वे लोग थे, जिन्होंने अपनी समस्याओं से मेरे शो को भर दिया। उन बहुत से लोगों का ज़िक्र करना चाहता हूं, जिन्होंने पहले ट्रोल किया, गालियां दीं, मगर बाद में ख़ुद लिखकर मुझसे माफ़ी मांगी। यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि आज सिटिज़न जर्नलिस्ट होने के लिए आपको स्टेट और स्टेट की तरह बर्ताव करने वाले सिटिज़न से भी जूझना होगा। चुनौती सिर्फ स्टेट नहीं है, स्टेट जैसे हो चुके लोग भी हैं।

जनता सूचना के क्षेत्र में अपने स्पेस की लड़ाई लड़ रही है, भले ही वह जीत नहीं पायी है। गांधी ने कहा था कि यदि अख़बार दुरुस्त नहीं रहेंगे, तो फिर हिन्दुस्तान की आज़ादी किस काम की। आज अख़बार डर गए हैं। वे अपनी आलोचना को देश की आलोचना बना देते हैं।

आज बड़े पैमाने पर सिटिज़न जर्नलिस्ट की ज़रूरत है, लेकिन उससे भी ज्यादा ज़रूत है सिटिज़न डेमोक्रेसी की।

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