Wednesday, December 18, 2024
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जवाहरलाल नेहरू की जिद से जुड़ा था जम्मू में अनुच्छेद 370

इस बात का अहसास मुश्किल से ही किया जाता है कि कश्मीर समस्या की जड़ में जो कारण जिम्मेदार बने उनमें प्रमुख थे-विलय पत्र में जनमत संग्रह का उल्लेख किया जाना, मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाना और भारतीय सेना के कदम तब रोक देना जब वह कश्मीर घुस आए हमलावरों को खदेड़ने वाली थी। अनुच्छेद 370 ने जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनने में बाधा डालने का काम किया।

इससे कम ही लोग अपरिचित हैं कि किस तरह सरदार पटेल, कांग्रेस कार्यसमिति के तमाम सदस्यों और साथ ही संविधान सभा की अनिच्छा के बावजूद यह अनुच्छेद निर्मित हुआ और संविधान का हिस्सा बना। अनुच्छेद 370 को 1947 के आखिर में शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू की ओर से लाया गया।

इस समय तक शेख अब्दुल्ला को महाराजा और नेहरू की ओर से जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया जा चुका था। नेहरू ने कश्मीर मामले को अपने अधीन रखा और गृहमंत्री होने के बाद भी सरदार पटेल को इस मसले पर दखल का अधिकार नहीं दिया।

अनुच्छेद 370 एक अस्थाई प्रावधान

इसीलिए जम्मू-कश्मीर के मामले पर जो कुछ हुआ उसके लिए नेहरू ही जिम्मेदार माने जाएंगे। यह लॉर्ड माउंटबेटन थे जिन्होंने नेहरू को इसके लिए राजी किया कि वह जम्मू-कश्मीर के मसले को संयुक्त राष्ट्र ले जाएं। इसी तरह यह शेख अब्दुल्ला थे जिन्होंने स्वतंत्र कश्मीर का शासक बनने और महाराजा के प्रति नापसंदगी के चलते नेहरू को जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के लिए राजी किया। अनुच्छेद 370 का सबसे खतरनाक प्रावधान यह था कि इसमें कोई भी संशोधन केवल जम्मू-कश्मीर विधानसभा ही कर सकती है।

नेहरू ने भरोसा दिलाया कि अनुच्छेद 370 एक अस्थाई प्रावधान है और वह समय के साथ समाप्त हो जाएगा, लेकिन हुआ इसका उल्टा।

शेख अब्दुल्ला ने पहला काम यह किया कि महाराजा के उत्तराधिकार के अधिकार को खत्म कर स्वयं को सदर-ए-रियासत के तौर पर स्थापित किया। जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने राज्य के भारत संघ में विलय के प्रस्ताव को 1956 में मंजूर किया। शेख अब्दुल्ला के साथ अनुच्छेद 370 के मसौदे को अंतिम रूप देने के बाद नेहरू ने गोपालस्वामी आयंगर को बिना विभाग का मंत्री बनाया ताकि वह कश्मीर मामले में उनकी सहायता कर सकें और इस अनुच्छेद पर संविधान सभा को राजी कर सकें। गोपालस्वामी आयंगर महाराज हरि सिंह के समय छह वषों तक कश्मीर के प्रधानमंत्री रह चुके थे।

सरदार पटेल का इस्तीफा

जब सरदार पटेल ने आयंगर की पहल पर आपत्ति जताई तो 27 दिसंबर 1947 को नेहरू ने बयान दिया, ‘‘आयंगर को खास तौर पर कश्मीर के प्रसंग में मदद करने को कहा गया है। कश्मीर पर उनके अनुभव और वहां के बारे में उनकी गहन जानकारी के चलते उन्हें पूरी सामथ्र्य दी गई है। मुङो नहीं पता कि इसमें राज्यों के मंत्रलय (सरदार पटेल के मंत्रलय) की भूमिका कहां से आती है, सिवाय इसके कि जो कदम उठाए जाएं उनसे उसे अवगत कराया जाए। यह मेरी पहल पर हो रहा है और जो मसला मेरी जिम्मेदारी है उससे मैं खुद को अलग नहीं कर सकता।’’

इसके बाद सरदार पटेल ने इस्तीफा दे दिया और मामला गांधी जी का पास गया ताकि दोनों सहयोगियों में सुलह करा सकें। इस दौरान वी शंकर सरदार पटेल के निजी सचिव थे। उन्होंने उस दौर की सारी गतिविधियों पर विस्तार से लिखा। उनके दस्तावेजों के अनुसार नेहरू ने पटेल को बताए बिना 370 का मसौदा तैयार किया था।

जब आयंगर ने इस मसौदे को संविधान सभा के समक्ष विचार के लिए रखा तो उसकी धज्जियां उड़ा दी गईं। नेहरू उस समय विदेश में थे। उन्होंने वहीं से पटेल को फोनकर अनुच्छेद 370 संबंधी मसौदे को संविधान सभा से पारित कराने की गुजारिश की। अपने सहयोगी के मान की रक्षा के लिए पटेल ने न चाहते हुए भी संविधान सभा और साथ ही कांग्रेस के सदस्यों को 370 के मसौदे को पारित करने के लिए राजी किया, लेकिन वी शंकर के मुताबिक पटेल ने यह भी कहा, ‘‘जवाहरलाल रोएगा।’’

कांग्रेस की हंगामेदार बैठक

वी शंकर ने लिखा है कि इस मुद्दे पर हुई कांग्रेस की बैठक बहुत हंगामेदार रही। उनके शब्दों में, ‘‘मैंने इतनी हंगामेदार बैठक कभी नहीं देखी।’’ आयंगर के फामरूले पर जोरदार प्रतिक्रिया व्यक्त की गई और यहां तक कि संविधान सभा की संप्रभुता का भी सवाल उठा। कांग्रेस पार्टी में भी नाराजगी थी।

जब एक बार सरदार पटेल ने कमान अपने हाथ में ले ली तो अनुच्छेद 370 पर विरोध के सुर शांत हो गए, लेकिन पटेल केनिधन के बाद 24 जुलाई 1952 को नेहरू ने कश्मीर के भारत संघ में धीमे एकीकरण पर संसद में कहा, ‘‘हर समय सरदार पटेल इस मामले को देखते रहे।’’ नेहरू की इस गलतबयानी पर खुद गोपालस्वामी आयंगर हैरान रह गए। उन्होंने वी शंकर से कहा कि यह अपनी अनिच्छा के बाद भी नेहरू के नजरिये को स्वीकार करने वाले पटेल के साथ किया गया बुरा बर्ताव था।

जम्मू मुख्यत: हिन्दू बहुल था

अक्सर यह भुला दिया जाता है कि जम्मू-कश्मीर राज्य कोई समरूप यानी एक जैसे लोगों का इलाका नहीं था। घाटी अवश्य मुस्लिम बहुल थी, लेकिन जम्मू मुख्यत: हिन्दू बहुल था और लद्दाख में मुसलमानों और बौद्धों की मिश्रित आबादी थी। इसके अलावा वहां गुज्जर और बक्करवाल भी थे। आखिर अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर के भारत संघ में पूर्ण एकीकरण में बाधक क्यों बना? सबसे पहले तो केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर के बारे में केवल राज्य सरकार की सहमति से ही कोई कानून बना सकती थी। इससे राज्य को एक तरह का वीटो पावर मिल गया था।

अनुच्छेद 352 और 360 जो राष्ट्रपति को राष्ट्रीय और वित्तीय आपात स्थिति की घोषणा करने का अधिकार देते हैं उनका इस्तेमाल भी जम्मू-कश्मीर में नहीं किया जा सकता था। जहां भारत का नागरिक केवल एकल यानी भारतीय नागरिकता रखता है वहीं जम्मू-कश्मीर के लोगों को दोहरी नागरिकता रखने का अधिकार था। दलबदल रोधी कानून भी जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हो सकता था और कोई बाहरी व्यक्ति इस राज्य में संपत्ति भी नहीं खरीद सकता था। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर को यह अधिकार भी था कि वह छावनी क्षेत्र के निर्माण के लिए मना कर सकता था और यहां तक सेना के इस्तेमाल के लिए जमीन देने से इन्कार कर सकता था।

(इंडियन डिफेंस रिव्यू में सेवानिवृत्त मेजर जनरल लेखक के आलेख-‘आर्टिकल 370: द अनटोल्ड स्टोरी’ का संपादित अंश)

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