(विश्व के तमाम देशों में पुलिस सुधार एक गंभीर मसला रही है। बिहार पुलिस के हाल भी जगजाहिर है। हाल ही में एक रिपोर्ट कॉमन कॉज, लोकनीति-CSDS द्वारा प्रकाशित की गई है। आइये हम इसी नज़रिये से बिहार पुलिस का आंकलन करते है।)
पुलिस का विवादों से नाता ‘दिया और बाती’ का रहा है। जेहन में पुलिस का ख्याल आते है एक भ्रष्ट, गैर-जवाबदेह, असंवेदनशील, अमानवीय एवं अत्याचारी अंग्रेजों की मानसिकता के एक अधिकारी की तरह छवि उभर आती है। आज़ादी के बाद से देश में अनेक युगांतकारी बदलाव आये है। यदि कही बदलाव नहीं आया है तो वो है पुलिस महकमा। आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी पुलिस की छवि अंग्रेजों के अत्याचारी छवि से मेल खाती है। ऐसा नहीं है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं आया है। लेकिन, सत्ता अपने निजी फायदों के लिए पुलिस-सुधार के सभी योजनाओं को रद्दी की टोकरी में फेंकती आई है। देश के साथ-साथ, बिहार पुलिस की भी यही नीति रही है।
पुलिस की कार्यप्रणाली को देखते हुए इस भ्रष्टाचार का पोषक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज के हालात में पुलिस तंत्र अपनी छवि जनसेवक से अधिक राजसेवक की बना चुकी है। इसके कई कारण हो सकते है। पुलिस तंत्र के जनविरोधी होने के सामजिक, राजनैतिक, आर्थिक या फिर अन्य कारण हो सकते है। फ़िलहाल हम चर्चा करेंगे एक रिपोर्ट की, जिसने पुलिस महकमे पर कई गंभीर सवाल उठाए है।
कॉमन कॉज, लोकनीति-CSDS (सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज)
हाल ही में कॉमन कॉज, लोकनीति-CSDS (सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज) ने भारत के 22 राज्यों में पुलिस को लेकर एक अध्ययन की है। इनका विषय “पुलिस प्रशासन और काम करने की स्तिथि” थी। इसमें वर्ष 2012 से 2016 तक की आंकड़ों का अध्ययन किया गया है। इस रिपोर्ट के माध्यम से पुलिस तंत्र की खामियों को उजागर करने की एक भरपूर चेष्टा की गई है। आइये हम जानते है की इसमें क्या है खास।
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पुलिस में 1 चौथाई से अधिक पद खाली, बिहार और UP के हालत अतिचिंतनीय
देश के तमाम राज्यों में पुलिस बल में एक चौथाई के करीब पद खाली है। देश में फ़िलहाल 75 % पदों पर ही पुलिसबल कार्यरत है। शेष पद या तो खाली है या भरे जाने की प्रक्रिया में है। इस रिपोर्ट के अनुसार नागालैंड ही एक मात्र राज्य है जहाँ स्वीकृत पदों से अधिक संख्या (107.2%) में पुलिस बल कार्यरत है। दिल्ली (98.3%) और kerala (97.9%) में भी स्तिथि बेहतर है। सबसे बुरी स्तिथि उत्तर प्रदेश और बिहार की है। इन राज्यों में स्वीकृत पदों की तुलना में सिर्फ 48.1% और 69.4% पदों पर ही बहाली हो सकी है।
साफ है कि सुशासन का राग अलापने वाली नितीश सरकार लम्बे कार्यकाल के बावजूद संख्याबल को सुधारने में विफल रही है। साथ ही राज्य में पुलिस बहाली में 2 से 3 वर्ष लग जाती है। इस लम्बी प्रकिया के वजह से संख्याबल पर नकारात्मक असर पड़ता है। राज्य में सुधार की गति नकारात्मक है। मतलब, हम इस मामले में और पिछड़ रहे है।
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उच्च पदों पर रिक्तियों की स्तिथि
अब हम ये जानने की कोशिश करते है कि अधिकारी स्तर पर पुलिस में रिक्तियों की क्या स्तिथि है। पुलिस ने फ़िलहाल असिस्टेंट सुब-इंस्पेक्टर (ASI ) से लेकर डिप्टी सुपरिंटेंडेंट ऑफ़ पुलिस (DySP ) तक के पदों की ही जानकारी उपलब्ध करवाई गई है। ये पुलिस का कार्यकारी भाग होता है। जो अपराधों की जाँच से लेकर पुलिस के तमाम जमीनी स्तर के काम को अंजाम देते है।
रिपोर्ट के अनुसार उच्च पदों पर नियुक्तियों के हालात निम्न पदों से भी बदतर है। सिर्फ दिल्ली, नागालैंड और केरल में ही स्तिथि कुछ ठीकठाक है। बिहार के 39.4% उच्च पद खाली पड़े है। अधिकारी स्तर पर पद खाली होने से जांच प्रकियाओं पर नकारात्मक असर हो रही है। इसका सीधा प्रभाव न्याय मिलने की समयसीमा पर भी होता है। साथ ही पीड़ित व्यक्ति को दर-दर की ठोकरे खाने को विवश होना पड़ता है। पहले से ही बदनाम पुलिस की अनुपलब्धता राज्य में अराजकता का एक माहौल बनाते नज़र आती है।
राज्य में एक स्तिथि ये भी है कि पुलिस कर्मी नेताओं के सुरक्षा, पहरेदारी और निजी कार्यों में भी लगे रहते है। उनके समय का एक बड़ा हिस्सा तो नेताओं के जीहुजूरी में ही बीत जाता है।
पदों के खाली होने की क्या है वजह
राज्य में बहाली की प्रक्रिया काफी जटिल और लम्बी है। बहाली प्रकिया के समाप्त होने में तक़रीबन 2-3 वर्ष लग जाती है। कई बार प्रक्रिया भ्रष्टाचार और कदाचार के कारण निलंबित हो जाती है। बिहार में उद्योगों की अत्यधिक कमी है। इस वजह से, राज्य के युवाओं के पास रोजगार के अवसर सिमित है। जिस कारण थोड़ी सी भी गड़बड़ी की आशंका होने पर अभ्यर्थीगण याचिका दाखिल कर देते है। यह राज्य में लम्बी बहाली प्रक्रिया होने की एक बड़ी वजह है। प्रशासनिक उदासीनता, रिश्वतखोरी और लालफीताशाही एक बड़ी वजह है जो बिहार की पुलिस संख्याबल में नकारात्मक वृद्धि कर रही है।
नियमित प्रशिक्षण का अभाव
नियमित पुलिस प्रशिक्षण पुलिसकर्मियों में एक ताजगी लाती है। साथ ही उनमे मानवीय गुणों एवं संवेदनशीलता का विकास होता है। देश में पुलिस प्रशिक्षण में खर्च का औसत पुलिस बजट का 1.26% है। लेकिन राज्य में पुलिस बजट का सिर्फ 0.48% ही इस मद में खर्च की जाती है। यह एक नगण्य राशि है। सालों से अमानवीय व्यवहार को कुख्यात पुलिस का बिना उचित प्रशिक्षण के सुधार लाना एक नामुमकिन कदम है। फ़िलहाल सरकार इस मामले में सुस्त ही नज़र आ रही है। पिछले पांच वर्षों में सिर्फ 5.6% पुलिसकर्मियों को ही प्रशिक्षण दिया गया है।
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आधारभूत संरचना का अभाव, कमजोर सुचना तंत्र
राज्य की पुलिस के पास आधारभूत संरचना का नितांत अभाव है। प्रति थाने मात्र 0.6 कंप्यूटर उपलब्ध है। जबकि राष्ट्रिय औसत 6 की है। स्पष्ट है कि हम आधुनिकीकरण की दिशा में देश की तुलना में 10 गुना पिछड़े है। अन्य मानकों में राज्य का रैंक निम्नतम है। Crime and Criminal Tracking Network Systems (CCTNS), जिसे पुलिस सूचना तंत्र के लिए क्रांतिकारी माना जाता है, में भी हम सबसे निचले पायदान पर है।
देश के तमाम राज्यों में डाटा एंट्री का काम भी पुलिस को ही करना होता है। यह पुलिस पर कानून-व्यवस्था, जाँच-प्रक्रिया से इतर एक अतिरिक्त बोझ होती है। ऐसे सिविल कार्य, सामान्य क्लर्क को भी सौंपा जा सकता है। लेकिन, पुलिस तंत्र तमाम रिपोर्टों के बावजूद इस ओर कदम उठाती नज़र नहीं आती है।
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(बढ़ता बिहार संपादकीय टीम के द्वारा पुलिस पर प्रस्तुत यह श्रृंखला आगे भी जारी रहेगी। अगले भाग में हम पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार समेत विविधता के मुद्दे को भी भी उठाएंगे। आपसे विनम्र निवेदन है कि इस लेख को अधिक से अधिक शेयर करें। साथ ही हमारे फेसबुक पेज और यूट्यूब चैनल को जरूर सब्सक्राइब करें।)